स्त्री-पुरुष प्रतिस्पर्धा, तुलना और संभोग | नैतिकता और समाज


स्त्री-पुरुष प्रतिस्पर्धा, तुलना और संभोग | नैतिकता और समाज| Abhipiyush.blogspot.com

💔 क्या हमारे समाज में स्त्री और पुरुष के लिए नैतिकता के मायने अलग-अलग हैं? एक ज़रूरी सवाल! ⚖️

क्या आपने कभी सोचा है कि पुरुष और स्त्री की कामुकता को समाज किस नज़र से देखता है, खासकर नैतिकता और विवाह के मामलों में? यह लेख आपके सोचने के तरीके को बदल सकता है! 🤔

स्त्री पुरुष प्रतिस्पर्धा

👉 यहाँ कुछ ऐसे सवाल उठाए गए हैं जो आपको सोचने पर मजबूर कर देंगे:

  • क्या पुरुष का अनैतिक योग उसकी बर्बादी और सर्वनाश का कारण बनता है, जबकि ऐसा करने पर स्त्री को सिर्फ 'भोग्या' समझ लिया जाता है?
  • क्या विवाह प्रसंग में स्त्री पुरुष से ज़्यादा 'महान' मानी जाती है, क्योंकि यहां वह भोग का साधन नहीं अपितु योग की शक्ति मानी जाती है?

✨ यह लेख गहराई से बताता है कि कैसे स्त्री का शरीर उसकी शक्ति है, और कैसे वह अपनी स्वतंत्रता का उपयोग कर सकती है - लेकिन इसके परिणाम क्या होते हैं?

स्त्री पुरुष तुलना

💔 पुरुष के बहु-विवाह पर भी सवाल उठाए गए हैं:

क्या यह हमेशा निंदनीय है, या कुछ परिस्थितियों में जायज़ हो सकता है जहां विवाह के लिए स्त्री ऐसे पुरुष का अनुगमन प्रशन्नता से स्वीकार करती है?

⚠️ सबसे ज़रूरी बात:

क्या कामुक आनंद के लिए संबंध बनाना स्त्री और पुरुष दोनों के लिए हानिकारक है?

संभोग

☯️ लेख में बताया गया है:

कैसे स्त्री और पुरुष में अलग-अलग स्वभाव होते हैं, और कैसे इनके बीच संतुलन बनाना ज़रूरी है।

💭 अंत में, यह लेख स्वतंत्रता और टकराव के बारे में बात करता है:

हम जो चाहे कर सकते हैं, लेकिन हमें दूसरों की स्वतंत्रता का भी सम्मान करना चाहिए।

आप इस लेख के बारे में क्या सोचते हैं? क्या आप सहमत हैं? 🤔 क्या आपके मन में कोई और सवाल है?

💬 कमेंट में अपनी राय ज़रूर बताएं! आइए, इस ज़रूरी विषय पर खुलकर बात करें! 👇

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⚖️ पुरुष और स्त्री: नैतिकता, विवाह और समाज - एक गहरा चिंतन 📜

क्या समाज में स्त्री और पुरुष के लिए नैतिकता के पैमाने अलग-अलग हैं ? क्या ये सवाल कभी आपके मन में भी उठा है? यह एक ऐसा विषय है जिस पर हमें गहराई से सोचने की ज़रूरत है। इस विचारोत्तेजक लेख में जानिए: क्या आप इन विचारों से सहमत हैं? क्या आपके अपने अनुभव कुछ और कहते हैं?

👉 पुरुष का अनैतिक योग:

उस के सर्वनाश का कारण बनता है, वहीं स्त्री का अनैतिक योग, उसे केवल 'भोग्या' में परिणित कर देता है।

❤️ विवाह:

एक रस्सी है, जिससे दम्पति एक दूसरे को स्वेच्छा से संकल्प के बल से बांध देते हैं। यह जितना कसकर बंधी होती है, रस्सी का बल उतना ही प्रखर होता है; और ढीली होने पर टूट जाती है। एक बार यह टूट जाए, तो फिर आप अगली बार किसी का वरण ही कर सकते हैं, लेकिन रस्सी आपके पास नहीं होगी। इसे फिर आप चाहे जो नाम दें, सही अर्थों में यह आधुनिक शब्दावली 'लिव इन रिलेशनशिप' से ज्यादा कुछ भी नहीं है।

✨ विवाह संबंध के दृष्टिकोण से:

पुरुष की तुलना में स्त्री कहीं अधिक महान, श्रेष्ठ और निर्णायक रूप से पूजनीय है, क्योंकि विवाह संबंध उसके लिए भोग का साधन नहीं है। भोग तो मुक्त अवस्था में भोग्या के रूप में भी संभव है, जो कि जैविक रूप से प्राणी का मूलभूत स्वभाव है।

💔 विधवा/विधुर विवाह का अर्वाचीन और प्राचीन दृष्टिकोण:

यह विषय भी पूरी तरह स्वतंत्र है दोनों ओर से समान रूप से समीचीन है और अंत कामुकता और अलौकिक प्रेम की प्रगाढ़ता और प्रबलता पर निर्भर है। यदि किसी स्त्री का अपने पति के प्रति अगाध प्रेम है तो वह उसके देहावसान के उपरांत उसके अभाव में भी आजीवन उसी के प्रति समर्पित रहती है। अन्यथा की स्थिति में कुछ भी करती है। ठीक उसी प्रकार ऐसे अनेकों पुरषों के उदहारण जिसने अपनी पत्नी के देहावसान के उपरांत भी उसी को अपने हृदय में धारण कर पूरा जीवन व्यतीत कर देते हैं ।

🌸 किंतु स्त्री का देह:

उसकी शक्ति है, उसकी धरोहर है, उसका आत्मसम्मान है, जिसे वह उसी को समर्पित करती है जिसे वह योग्य समझती है। स्त्री सृष्टि को उत्पन्न करती है, इसलिए वह वंशजा कहलाती है। अब यदि वह इस देह को भोग्या बनाना चाहे तो वह स्वतंत्र है; यह स्वतंत्रता उसे अनादि काल से प्राप्त है। और यदि वह अनेक प्रजातियों को उत्पन्न करके अपने पवित्र उदर का प्रयोग नाले की भांति सड़े हुए पानी से विविध जीवों को उत्पन्न करने के लिए करना चाहे, तो यह भी उसकी इच्छा है। ऐसा अनादि काल से होता आया है, जिसका परिणाम उस स्त्री के लिए और उत्पन्न समाज के लिए महाकष्टदायी हुआ है।

💔 पुरुष का बहु-विवाह:

भी उसी प्रकार निंदनीय है जब वह भोग-दृष्टि पर आधारित होता है, और उसका समूल नाश कर देता है। लेकिन यदि उद्देश्य इस प्रकार हों: एक राज्याकांक्षी पुरुष राज्य-रक्षा, राज्य-विस्तार एवं प्रशासनिक सुसंचालन के लिए सजातीय प्रजा का विस्तार चाहता है; कोई विशेष व्यक्ति कल्याणार्थ अपने वंश का त्वरित विस्तार करना चाहता है; कोई पुरुष बल एवं वीर्य के सामर्थ्य से युक्त है और सप्रेम माता-पिता द्वारा अपनी पुत्री का दान उसे दिया गया हो; पत्नी का देहावसान हो गया हो और कुशल गृहिणी के अभाव में उसकी व्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता हो; एवं सामयिक दृष्टिकोण से कल्याणकारी उद्देश्य की पूर्ति के लिए, ऐसी स्थिति में कन्या की सहमति और माता-पिता और कुल की अनुमति से वह पाणिग्रहण कर सकता है।

💔 पुरुष का बहुस्त्री गमन:

यह एकपक्षीय नहीं है; जबकि यह एक ऐसी पटकथा के रूप में उद्घाटित होता है, जहां पुरुष स्वेच्छा से किसी भी स्त्री से संबंध बना लेता है। किन्तु ऐसा नहीं है कि जब एक कामुक पुरुष अपनी ओर से किसी स्त्री की खोज करता है और दूसरी ओर कोई कामुक स्त्री किसी ऐसे पुरुष की खोज करती है, तब दोनों के मेल होने पर यह स्थिति निर्मित होती है। यहाँ स्त्री या पुरुष साध्य नहीं होते, अपितु स्त्री के लिए पुरुष का कामांग और पुरुष के लिए स्त्री का कामांग साध्य होते हैं। ऐसे स्त्री-पुरुष अवसर की खोज में निरंतर लगे रहते हैं। इसलिए ऐसे विषय में दोनों एक समान दोषी हैं। एक ओर पुरुष बहुस्त्रीगामी होता है, तो दूसरी ओर स्त्री बहुपुरुषगामिनी होती है। हां, परस्पर छल भी कामांध वृत्ति का ही परिणाम है, जो दोनों ओर से होता है। यह एक साथ भी हो सकता है और अलग-अलग परिस्थितियों में भी संभव है। यह वृत्ति नशे के समान है और उससे कहीं अधिक हानिकारक है। यह एक असामाजिक घटना है, जिसका दुष्प्रभाव सबसे पहले स्वयं पर पड़ता है—अपने पति-पत्नी के साथ छल, माता-पिता के साथ घात, संतान पर भयानक मानसिक आघात, परिवार का विनाश, सामाजिक चरित्र पर आघात तथा समावेश पर घातक और विनाशकारी संक्रमण के समान होता है।

⚠️ लेकिन कामुक आनंद प्राप्त करने के लिए संयोग स्थापित करना:

और उससे कीड़े-मकोड़े उत्पन्न करना किसी भी स्त्री और किसी भी पुरुष, फिर चाहे वह विश्व में कहीं भी निवास करता हो, किसी भी परिवेश में हो, उस स्त्री या पुरुष को स्वभाव से से ही स्वीकार्य नहीं है। और ऐसा करने के लिए प्रेरित किए जाने पर स्वयं के लिए बलात् बंधनकारी स्वीकार करता है। यह भाव ठीक उसी प्रकार से स्त्री या पुरुष में उत्पन्न होता है जैसे वह देह सुख के लिए तड़पता रहता है/रहती है और अवसर पाकर ऐसा करने में तनिक भी विलंब नहीं करना चाहता/चाहती है।

☯️ ये दोनों स्वभाव:

स्त्री और पुरुष में समान रूप से उत्पन्न होते हैं और धुर प्रतिकूल हैं। इन दोनों महाप्रतिकूल स्वभावों में सामंजस्य स्थापित करना ही मानवता है और उसे मनुष्य बनाए रखता है। व्रतोन्मुखी स्वभाव उसे प्रकाश की ओर आगे बढ़ाता है और भोगोन्मुखी स्वभाव उसे अंधकार की ओर धकेलता है।

💭 हम जो भी करते हैं:

यह निश्चित रूप से हमारी स्वतंत्रता है। ठीक उसी प्रकार अगला कुछ भी सोचता है, यह अगले की स्वतंत्रता है। जैसे आपको कुछ भी करने से कोई नहीं रोक सकता, वैसे ही सामने वाले के द्वारा कुछ भी सोचने पर उसे भी कोई नहीं रोक सकता। लेकिन जब टकराव की स्थिति उत्पन्न होती है, एक दूसरे से व्यक्ति इस प्रकार से प्रभावित होता है कि किसी एक की स्वतंत्रता का हनन होना प्रारम्भ हो जाए, तब इसका निदान अगली प्रक्रिया होती है, जिसे संघर्ष कहते हैं और इससे दोनों को बचना चाहिए।

आप इस लेख के बारे में क्या सोचते हैं? क्या आप सहमत हैं? 🤔 अपनी राय कमेंट में जरूर बताएं! 👇

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ब्लॉग: Abhipiyush.blogspot.com

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